🙏जय माता जी री सा,
फागुन का महीना अभी बीता ही है और राजस्थान में अभी होली तथा शादियों के उत्सव धूमधाम से मनाये रहे हैं।
लगभग हर रात शादी, आणे, ढूंढ आदि की पार्टियों में मदिरा और मांस की रेलमछेल चल रही है।
इसी सिलसिले में पिछले एक महीने में कई शादी और ढूंढ पार्टियों में शरीक होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जिसे वास्तविक रूप से देखें तो दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है। अब इसे चाहे मजबूरी समझें या समाज और अपनों से जुड़े रहने का दिखावा।
*"दुर्भाग्य"* संज्ञा इसलिए दी है कि कुछ को छोड़ कर ना तो इन पार्टियों में मुझे कहीं क्षत्रिय संस्कार दिखे और न ही वो अपनापन जो कभी हुआ करता था। खोखले दिखावे के अलावा शायद वहाँ कुछ भी नही था।
बड़े बड़े रंगीन शामियानों में जैसे ही महफ़िल के टेबल लगे, मेहमान अपनी अपनी टुकड़ियों के साथ कोने वाले टेबल ढूंढते दिखे, किसी के पसंदीदा ब्रांड की शराब या बीयर न देखकर मुँह बिगड़ते देखे।
ना किसी से जान पहचान ना किसी से बातचीत, ना जाने कौनसी अकड़ में बैठे दिखे। टेबल से यजामन पर धौंस तो इस तरह जमाते देखे जैसे साहब 12 गाँवो के जागीरदार है और घर पर तो हमेशा वही ब्रांड पीते है तथा हमेशा सेवा में 10-12 नौकर चाकर इर्दगिर्द घूमते हो।
कुछ पढेलिखे सरकारी होदेदार VIP मेहमान सभी मेहमानों से अलग VIP टेबल पर जैसे पास में बैठे सभी बंधु तो निम्न जाति के हो। इनके लिए भाई ऊंची किस्म की शराब और मांस में से भी बोटी-बोटी अलग से लाओ। स्नेक्स में काजू बादाम और पनीर के पकोड़े अलग से।
खैर महफिलें शुरू हुई, 2 पैग अंदर गये और बन्नाजी कि रजपूती जागी। गाने वालों से फरमाइशों का दौर शुरू हुआ
"माँ जगदम्बा भर दे राजपूतों में रजपूती"
अब वो माँ भी बैठकर अपने आप को कोस रही होगी कि किसमे रजपूती भरूँ बेटा?
धीरे धीरे महफ़िल में रंग चढ़ रहे थे तभी फरमाइश आई "मायड़ थारो बो पूत कठे... महाराणा प्रताप कठे"
अरे मूर्खों अपने अंदर झांक कर पूछो अपने आप से कि उस महाराणा की आत्मा अपने आपको कितना धिक्कारती होगी जब एक हाथ मे मांस की बोटी ले दूसरे हाथ मे शराब की गिलास और लड़खड़ाते थिरकते पैरों को देख कि किन मूर्खों के लिए हमने स्वाभिमान की खातिर अपने ऐशो आराम को ठोकर मारी, जंगलों की खाक छानी, घास की रोटियां खाई??
रात ढलती गई अब टेबलों पर होड़ लगने का दौर शुरू हुआ "हम तो सुबह 6 बजे तक पियेंगे।"
एक तरफ टेबलों पर लगा खाना ठंडा हो रहा है वहीं दूसरी तरफ एक भूखा ढोली अपनी अंतरात्मा को धिक्कारता हुआ मजबूरी में आपके बखान के कसीदे पढ़ अपना गला फाड़ रहा है।
खाना ठंडा हो चुका है और लगभग लोग खा पी कर सो चुके है। बेचारे खाना परोसने वाले 2-4 लोग खड़े इंतजार कर रहे हैं कि कब बन्ना लोग खाना खाये और कब हम भी दो पल आंख मूंद कर दिनभर की थकान मिटायें।
रात के लगभग 2:30 बजे के बाद शराब का नशा सिर चढ़कर बोलने लगता है और फरमाइश आती है "ये जो हल्का हल्का सुरूर है"। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन फिर नशे में चूर फरमाइश आती है " सररर..ररर घूमे रे मेरा घाघरा और बन्नाजी शराब की बोतल सिर पर रखकर अपना घाघरा घुमाते थिरकने लगते हैं।
वाह रे रजपूती... धन्य है तू!
मेरा उद्देश्य समाज के रिवाजो का कटाक्ष करना या किसी की निजी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचना नही है बल्कि आज हम किस दिशा में जा रहे है एक बार उस मार्ग की तरफ ध्यान आकर्षित करना है।
#copied
जय क्षात्रधर्म..🙏🏻🅿
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